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आशुतोष सिंह

कान्हा से कुछ प्रश्न

कान्हा से कुछ प्रश्न

एक लड़की थी भोली

पतथर पर बनाती रंगोली

रंगोली में माखनचोर

जिधर चाहें वहाँ कर दें भोर

जो लीलाधर हैं सबसे बड़े

जहाँ देखो वहाँ वे ही खड़े


लड़की उनसे पूछ रही

माखन खाकर गीता कही

क्या राम से तुमने सीखा था

या अर्जुन ने चीखा था

अपने मन का कौतूहल

लड़ने मिले अपनों से बल


क्या तुम ही खुद त्रस्त रहे

या अपने में मस्त रहे

क्यूँ चीर हरण तुम रोक न पाए

धर्मराज को टोक न पाए

अश्वत्थामा को शाप दे सके

पर दुर्योधन को न तुम रोक सके


तुम गांधारी से अभिशापित हो

बालि वध के कारण पापित हो

विधि तुम्हारी तुम स्वयं विधान हो

दुःखों को तारते करूणानिधान हो

महाभारत के कारण तुम हो

हर जिह्वा के उच्चारण तुम हो


इन प्रश्नों के तुम ही जवाब दो

धर्म से मोक्ष तक का उत्थान दो

कैसे धर्म था कंक शिविर में

अभिमन्यु पहुँचा चक्र भँवर में

क्या बाल-मृत्यु पर लाज न आई

या नियति की दोगे फिर से दुहाई


महासमर क्यों होने दिया

क्यों भाई भाई ने खोने दिया

क्यों अपनों से अपने मिटे

साथ रहने के सपने मिटे

झंकार मृत्यु की गूँजी थी

मिट गई जो भी पूँजी थी


सकल सुदर्शन नाच रहा

नाश की गाथा बाँच रहा

पञ्चजंय क्यों बोल रहा

जैसे काल स्वयं मुँह खोल रहा

बंशी का स्वर गुम क्यूँ हुआ

मुख मोहन का चुप क्यूँ हुआ


तुम उत्तर क्यूँ नहीं देते हो

अपने मन की न कहते हो

अखिल जगत के नाथ स्वयं तुम

हर प्राणी के हाथ स्वयं तुम

तुम ने दिया था गीतोपदेश

तुम तो स्वयं हो ब्रह्म-महेश


तुम ही रचे हो सब लीला

तुमने ही किया अंबर नीला

तुम कह दो तो घन बरसे

तुम नहीं हो तो मन तरसे

रंगोली के रंग भी तुम हो

बिन रंगों के संग भी तुम हो


मैं तो रंगोली बनाने वाली

कृष्ण प्रेम में हुई मतवाली

माना नहीं मैं कोई गोपी

पर जो भी जिज्ञासा होती

अपने कान्हा से पूछ रही हूँ

मन की पहेली बूझ रही हूँ


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